Monday 20 March 2017

ब्रह्मराक्षस की व्याख्या / brahmrakshas ki vyakhya

ब्रह्मराक्षस मवुिबोध की एक प्रवसद्ध कववता है| यह सवप्रत थम अप्रैल 1957 मेंप्रकावशत हुई थी | उस समय वहदिं ी मेंवकसी का ध्यान इसकी तरि नहीं गया | बाद में1964 मेंजब वह मवुिबोध केप्रथम कववता-सिंग्रह ‚चााँद का महिंु टेढ़ा ह‛ ै मेंसिंकवलत की गई तो लोगों ने इसकी तरि ध्यान वदया | ब्रह्मराक्षस कववता ‘अाँधेरे में’ कववता के बाद दसूरी प्रवसद्ध कववता है| आकार में यह कववता अपेक्षाकृत छोटी ह,ैलेवकन अपनेस्वरूप सेयह एक लम्बी कववता है | समय के साथ दशे की पररवस्थवतयािं तथा रचनाओिंकी व्याख्या र्ी बदलती रहती है| इस कववता का मनैंे वततमान समय मेंमार्कसतवाद की र्ारत मेंवस्थवत पर चचातकी है| ज्ञातव्य हैवक मवुिबोध मार्कसतवादी थे | वे इस कववता मेंफ़िंतासी के माध्यम सेमार्कसतवाद की दशा पर प्रकाश डालतेहैं| मवुिबोध अपनी कववतों मेंर्यावहता के वलए अधाँ ेरेका प्रयोग बहुलता सेकरतेहैं| वह र्यावहता केवलए लोक प्रचवलत प्रतीकों का प्रयोग नए ढिंग सेकरतेहैं| शास्त्रों केअनसुार यवद कोई ब्राह्मण आत्महत्या करता हैअथवा उसकी असामवयक मत्ृयुहोती हैतो वह प्रेत- योवन में जन्म लेता है और उसे ब्रह्मराक्षस कहते हैं | यह ब्रह्मराक्षस पवूतजन्म मेंएक मार्कसतवादी वचन्तक था जो अपने कायतको परूा न कर सका और इसी वचिंता केकारण असमय मर जाता है| मवुिबोध कहतेहैंवक मार्कसतवादी ववचारधारा की पररवध र्ारत मेंवसकुड़ती जा रही हैअथातत लोगों का उससे मोह-र्गिं हो रहा ह,ै वकसी खडिं हर की तरह | मार्कसतवाद के बड़ेववचारक र्ारत मेंनहीं रहे| मार्कसतवाद को वततमान समय में र्य की वनगाह से देखा जा रहा है | उसे समाज और देश केवलए खतरा बताया जा रहा है | ऐसा र्कयों वकया जा रहा है, यह वकसी की समझ में नहीं आ रहा है | लेवकन इसके पीछे अवश्य की कोई गहरा राज है, सोची-समझी चाल है | ‘बावड़ी’ जो की मार्कसतवाद का प्रतीक है तथा ‘जल-रावशयााँ’ उसके ज्ञान का प्रतीक है| उसे अब के वल परुाने गलूर केपेड़ अथातत कुछेक बवुद्धजीवी बचाए हुए हैंऔर वही उसके वाहक है| मार्कसतवाद केपरुानेसमाज कल्याण के पररणामों को देखकर सिंदहे होता हैवक एक ऐसी ववचारधारा दवुनया र्र की सर्ी ववचारधाराओिं मेंसबसे नवीन, समविवादी चेतना से ओत-प्रोत, समाज के सर्ी वगों को साथ लेकर चलने वाली कै से हावशये पर आ सकती है | बावड़ी रूपी मार्कसतवाद केदगुतके मडिंुेर पर लाल कनेर का गच्ुछा लाल झडिं ा हैऔर श्वेत टगर का पष्ुप उस झडिं ेका तारा है| इस प्रकार लाल झडिं ा बावड़ी की मडिंुेर पर लहरा रहा हैऔर र्ववष्य केअधिं ेर की तरफ़ आश्चयतसे देख रहा है मानो वक मार्कसतवाद का र्ववष्य ख़तरे में है | बावड़ी में एक ब्रह्मराक्षस बैठा है जोवक अके ले पागल की तरह बड़बड़ा रहा ह,ै ठीक उसी तरह जसै ेकी मार्कसतवादी बवुद्धजीवी अपनेसेिजोन मेंक्ािंवत की बात करतेहैं| मार्कसतवादी ववचारधारा में एक शब्द आता है ‘ऐवतहावसक गलती’ (historical mistake) वजसका कािी महत्त्व होता है | ब्रह्मराक्षस पवूतजन्म मेंअपनेववचार आम जनता मेंनहीं पहुचिं ा पाया वजसकेकारण उसेप्रेत-योवन में जन्म लेना पड़ा | वैसे ही मार्कसतवादी र्ारत में अपनी जमीन खोते जा रहे हैं और अपनी गलवतयों का कारण ढूिंढतेहैंपनुः उसी गलती को रात-वदन दरूकरनेकी कोवशश करतेहैं| विर-र्ी उनकी पहुचाँ वजतनी आम जनता (सवतहारा-वगत) तक होनी चावहए उतनी नहीं हो पाती है| इसी असिलता केकारण वेआत्मालोचना करतेह,ैंक्ुद्ध होतेहैंऔर अवधक सिंघषतकरनेका सिंकल्प लेतेहैंपरन्तुयहााँब्रह्मराक्षस हैजो मन् ों का उच्चारण करता ह,ैधाराप्रवाह सिंस्कृत मेंगवलयािंबकता है| जब कर्ी सयूतकी वकरण बावड़ी की दीवारों सेटकरा कर अन्दर पहुचिं ती हैतो ब्रह्मराक्षस समझता हैवक सयूत ने उसे ‘नमस्ते’ वकया हैऔर जब कर्ी र्लूेसेचिंद्रमा की वकरण बावड़ी के तल तक पहुचिं ती हैतो ब्रह्मराक्षस समझाता हैवक चिंद्रमा नेउसकी वदिं ना कर उसेज्ञान-गरुु मान वलया है| इसी प्रकार समाज मेंजब वकसी आन्दोलन की अगवुाई मार्कसतवादी करतेहैंतो समाज केअन्य वगतउनकेपीछेहो लेतेहैं| इससेवेगौरवावन्वत होतेहै| ब्रह्मराक्षस दगुनुेउत्साह सेसर्ी स्यताओिंके ग्रिंथों, वदेों की चचाओ,िं छिंद, मन् , प्रमयेों सेलेकर, 19वीं और 20वीं सदी केसर्ी महान दाशवतनकों केवसद्धािंतों पर नया व्याख्यान दे रहा हैतथा अपनेतकों द्वारा उनका खडिं न और मडिं न कर रहा है| उसके इस व्याख्यान को टगर, करौंदी, गलूर आवद प्रतीक ही सनु रहेहैं| इसी प्रकार मार्कसतवादी ववचारकों केर्ी व्याख्यान उनकी सर्ाओिंमेंउपवस्थत सीवमत लोग ही सनुतेहै| कववता केदसरे र्ाग में प्रतीकों के माध्यम से मार्कसतवाद के पथ में आने वाली कठनाइयों का वणतन है | ू मार्कसतवाद रूपी ज़ीना है जो साम्यवादी शासन व्यवस्था जैसे वनराले लोक तक जाता हैपरन्तुउसकी प्रत्येक सीवढ़यााँ चनुौवतयों सेर्री हैं| उस पर चढ़ाना और उतरना, पनुः चढ़ाना और लढ़ुकना इसकेदौरान पैरो मेंमोच, छाती पर अनेकों घाव आ जातेहै| बरुेकेस्थान पर अच्छेको स्थावपत करनेका सिंघषतकािी कवठन हैअथातत पिंजूीवादी समाज केस्थान पर साम्यवादी समाज स्थावपत करना बहुत कवठन है| कुछ सिलता के बदलेअवधक असिलता वमलेगी वकन्तुयह असिलता बहुत प्यारी होगी र्कयोंवक असिलता ही सिलता केद्वार खोलती है| वसद्धािंत को व्यवहार में लाना वनवश्चत रूप सेबहुत कवठन होता हैयह ज्यावमवत की सिंगवतयााँनहीं ह

Friday 10 March 2017

समय,samay






     समय 


समय ने आज लाकर मुझे कहाँ खड़ा कर दिया है,
सब कुछ खरीद लूँ ऐसा बना दिया है 
लेकिन कैसे खरीद लूँ मैं  उन लम्हों को 
जो याद आते हैं मुझे अकेले में 
मैं चाहता हूँ इन सबके बदले 
जो छोड़ आया हूँ कहीं दूर 
क्या समय का फेर है पहले मुझे 
यही चाहिए था जो अब है 
लेकिन अब वही चाहिए जो तब था 
लेकिन इस समय को पाने के लिए बहुत कुछ खोया जा चुका है 
इस लिए मैं और कुछ पाना नहीं चाहता अब को खोने के डर से 


                                                      आशीष कुमार पाण्डेय



Sunday 26 February 2017

स्वर ,swar, hindi vowels

                         
                                                                         स्वर (vowels)


स्वर : स्वतंत्र रूप से बोले जानेवाले वर्ण स्वर कहलाते हैं |   परंपरागत रूप से तो इनकी संख्या 13 मानी गई है लेकिन उच्चारण की दृष्टि से इनकी संख्या 10 ही है |

                         अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ |

Monday 20 February 2017


रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग - 7

'जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।

Thursday 9 February 2017

रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग - 6, rashmirathi pratham sarg bhag-6


रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग - 6

लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल से,
रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,
जनता विकल पुकार उठी, 'जय महाराज अंगेश।

Wednesday 8 February 2017

रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग - 5

'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।

'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।'
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।

कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त,
मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्‌भ्रान्त?

'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!
अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।'
कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!
वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।

'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।
उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम?
कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।'

घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,
होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।
चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।
रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग - 4 

'पूछो मेरी जाति , शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से'
रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे,
क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे।
अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,
अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।'

कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।'

कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,
सह न सका अन्याय , सुयोधन बढ़कर आगे आया।
बोला-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान,
उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।

'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।

'किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया।
कर्ण भले ही सूत्रोपुत्र हो, अथवा श्वपच, चमार,
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।